बचपन में धनपत राय श्रीवास्तव था मुंशी प्रेमचंद का नाम। इनके जीवन की एक घटना ने बना दिया इन्हे मुंशी प्रेमचंद। आगे पढ़े इनके जीवन और मृत्यु से जुड़ी महत्वपूर्ण बातें –
हिंदी और उर्दू के महान लेखकों में से एक मुंशी प्रेमचंद को उपन्यास और कहानियों का सम्राट कहा जाता है। बच्चे से लेके बूढ़े तक उन्हीं कहानियों और उपन्यासों को पढ़ते हैं। उनकी लेखन शैली वाकई में अदभुत थी। अपनी लेखन शैली के माध्यम से ही उन्होंने एक ऐसी उपन्यास और कहानियों की परंपरा को शुरू किया था, जिसके बाद पूरी सदी तक लोगों ने साहित्य का मार्गदर्शन किया था। उन्हें भारत का विलियम शेक्सपियर भी कहा जाता है।
मुंशी प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई, 1880 में उत्तर प्रदेश के बनारस जिले के एक छोटे से गांव लमही में हुआ था। इनके पिता का नाम अजायब राय था, जो कि डाकघर में एक मुंशी के रूप में कार्यरत थे। इनके पिता अजायब राय ने ही इनका बचपन में नाम धनपत राय श्रीवास्तव रखा था, लेकिन फिर आगे चलकर इनका नाम बदलकर पहले नवाब राय हुआ और फिर मुंशी प्रेमचंद हो गया। ये तो अब आप सभी जान ही गए कि मुंशी प्रेमचंद हमेशा से मुंशी प्रेमचंद नहीं थे, मतलब ये है कि इनका बचपन में नाम कुछ और था, फिर बाद में आगे चलकर इनके जीवन में एक ऐसी घटना घटी जिसके बाद इनके नाम में मुंशी जुड़ गया।
धनपत राय श्रीवास्तव से बने मुंशी प्रेमचंद
बहुत से लोगों का ऐसा मानना है कि प्रेमचंद के पिता बतौर मुंशी, डाकघर में कार्य करते थे। यही कारण है कि उनके नाम में भी मुंशी जुड़ गया था। लेकिन ये सच नहीं है। असल में हुआ ये था कि प्रेमचंद उस समय एक हंस नाम के अखबार में काम किया करते थे। उनके साथ ही उस अखबार में एक और व्यक्ति था जिसका नाम कन्हैया लाल मुंशी था। फिर जब भी अखबार में कोई भी संपादकीय छपता था तो कन्हैया लाल मुंशी और प्रेमचंद का नाम एक साथ छाप जाता था। दोनों ही नामों के बीच में कोई अल्प विराम आदि कुछ नहीं होता था। जिसकी वजह से लोग इन्हें मुंशी प्रेमचंद के नाम से जान गए थे और फिर इनका नाम ही मुंशी प्रेमचंद पड़ गया था। आगे इस पोस्ट में हम मुंशी प्रेमचंद के जीवन और मृत्यु के बारे में बात करेंगे।
मुंशी प्रेमचंद का बचपन
बनारस में जन्मे मुंशी प्रेमचंद को एक लालगंज के रहने वाले मौलवी के यहां 6 साल की उम्र में उर्दू और फ़ारसी पढ़ने के लिए भेजा गया था। प्रेमचंद की माता का देहांत काफी जल्दी हो गया था, इसके बाद उनके पिता का भी देहांत हो गया, जिसकी वज़ह से उनकी पढ़ाई में काफी अर्चनें आ गईं। जैसे- तैसे तो उन्होंने मैट्रिक पास किया और फ़िर किसी रह से मास्टर बने। परिवार में काफ़ी गरीबी थी, जिसकी वज़ह से ये ज्यादा पढ़ भी न सके।
लेकिन प्रेमचंद को किताबों से बड़ा प्यार था। इसीलिए उन्होने बुक शॉप पर भी काम किया था। मां के गुजर जाने के बाद, प्रेमचंद की बड़ी बहन ने उनकी देखभाल की थी और उन्हें एक मां के समान ही प्यार दिया था। फिर जब उनकी बड़ी बहन की भी शादी हो गई तो उसके बाद वो बिल्कुल अकेले पड़ गए। अकेलेपन से दूर होने के लिए उन्होंने किताबों से दोस्ती की और अकेले घर में बैठकर बस किताबें और कहानियां पढ़ने लगे। वो इन किताबों और कहानियों में इतना ज्यादा खो गए कि आगे चलकर वो खुद एक लेखक और खाकर बन गए।
मुंशी प्रेमचंद का विवाह
प्रेमचंद जब 15 साल के थे, तभी उनके सौतेले नाना ने उनका विवाह तय कर दिया था। नाना के कहने पर उन्होंने विवाह भी कर लिया था। ऐसा बताया जाता है कि प्रेमचंद का विवाह जिस लड़की से हुआ था उसका न तो स्वभाव ही अच्छा था और न ही वो देखने में अच्छी थी। प्रेमचंद को एक शील स्वभाव वाली लड़की से विवाह करना था। लेकिन, किस्मत को जो मंजूर था, हुआ वही। जिससे उनकी शादी हुई थी, वो हमेशा लड़ाई- झगड़े किया करती थी। यही कारण है कि ये शादी ज्यादा दिनों तक टिक नहीं पाई और शादी टूट गई। इसके बाद प्रेमचंद ने फ़ैसला लिया कि वो अपने मन से शादी करेंगी और अपना दूसरा विवाह एक विधवा लड़की से करेंगे।
उन्होंने फिर 1905 में शिवरानी देवी नाम की विधवा कन्या से शादी कर ली। ये बाल विधवा थीं। शिवारानी देवी के जो पिता थे, वो फतेहपुर जिले के पास किसी इलाके में एक जमीदार थे। जब प्रेमचंद ने दूसरा विवाह किया, उसके बाद उनका जीवन थोड़ा राह पर आया। उनकी आर्थिक स्थिति में भी सुधार आने लगा और जीवन भी सुखमय बीतने लगा। इसके बाद ही इनका लेखन कार्य प्रगति पर आया। इसके बाद इनकी पदोन्नति करके इन्हें स्कूलों का डिप्टी इंस्पेक्टर बना दिया गया था। फिर 1936 में, मुंशी प्रेमचंद का निधन हो गया, जिसके बाद उनकी पत्नी ने उन पर एक किताब लिखी थी, जिसका नाम था ‘मुंशी प्रेमचंद घर में’।
मुंशी प्रेमचंद की मृत्यु
काफी समय तक अध्यापन कार्य करने के बाद, मुंशी प्रेमचंद ने इससे हमेशा के लिए छुट्टी ले ली थी और 1921 में 18 मार्च को वो वापस बनारस आ गए थे। बनारस आने के बाद प्रेमचंद का सारा ध्यान सिर्फ साहित्य कार्य में लगा हुआ था। नौकरी छूट जाने की वजह से आर्थिक स्थिति तो खराब होनी ही थी, लेकिन वो गांधीजी के असहयोग आंदोलन में भी अपनी हिस्सेदारी निभाना चाहते थे। यही कारण था कि उन्होंने गांधीजी के कहने पर अंग्रजों की दी नौकरी को ठोकर मार दिए था। जैसे- तैसे घर खर्च चल रहा था। फिर अचानक 8 अक्टूबर, 1936 में उनका निधन हो गया। उनका निधान बनारस में ही हुआ था। उनके निधन के बाद उनकी पत्नी शिवारानी देवी ने उन पर एक किताब भी लिखी थी। उस किताब का नाम ‘मुंशी प्रेमचंद घर में’ था।
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