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टीपू सुल्तान की मृत्यु कब हुई ?

टीपू सुल्तान की मृत्यु के बाद भी अंग्रेज उसके समीप जाने से क्यों डर रहे थे। आखिर उस दिन ऐसा क्या हुआ था जिससे टीपू सुल्तान का वो आखिरी दिन बन गया था। आगे इस पोस्ट के पढ़ें टीपू सुल्तान की मृत्यु और जीवन जुड़ी महत्वपूर्ण बातें –

4 मई 1799 को टीपू सुल्तान की मृत्यु हुई थी। शेर- ए- मैसूर के नाम से मशहूर टीपू सुल्तान ने आखिरी सांस तक अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा उठाया था। टीपू सुल्तान को हमेशा ब्रिटिश सेना को धूल चटाने के लिए याद किया जाता है। टीपू सुल्तान ने जिस तरह से अंग्रेजों को धूल चटाई थी, उससे कहीं ज्यादा बुरा उसने हिंदुओं के साथ किया था। उस पर हिंदुओं का नर संहार और हिंदू मंदिर आदि को तोड़ने का इल्ज़ाम लगाया जाता है।

कुछ इतिहासकारों का ऐसा दावा है कि टीपू सुल्तान ने धर्म निरपेक्षता की नीति को नहीं अपनाया था, बल्कि वो एक निरंकुश और असहिष्णु शासक के रूप में राज सिंहासन पर बैठा हुआ था। कहीं- कहीं टीपू सुल्तान को दक्षिण के औरंगज़ेब के नाम से संबोधित किया जाता है क्योंकि उसने बहुत से निर्दोष लोगों को जबरदस्ती धर्म परिवर्तन के लिए मजबूर किया था और सैंकड़ों मंदिरों को नष्ट किया था। इसके साथ ही उसने मैसूर जैसे बड़े राज्य को अंग्रेजों से बचाया था। टीपू सुल्तान का नाम सुनते ही अंग्रेजी सेना थर- थर कांपने लगती थी।

टीपू सुल्तान एक बहुत ही क्रूर मुस्लिम शासक था। उसका जन्म 20 नवंबर, 1950 में कर्नाटक राज्य के देवनहल्ली में हुआ था। उसके पिता का नाम हैदर अली था। हैदर अली का नाम इतिहास में काफी प्रख्यात है। हैदर अली मैसूर राज्य में एक ही सैनिक हुआ करते थे, फिर अपनी सूझ बूझ और समझदारी से वो 1761 में मैसूर की राजगद्दी के मालिक बन बैठे थे। फिर जब हैदर अली की मृत्यु हुई, उसके बाद टीपू सुल्तान मैसूर का अगला उत्तराधिकारी बना।

टीपू सुल्तान की मृत्यु

टीपू सुल्तान ने राजगद्दी संभालने के बाद अंग्रजों की नाक में दम कर रखा था। उसके जीवित रहते अंग्रेज मैसूर पर कभी भी अपना कब्ज़ा नहीं जमा पाए थे। टीपू सुल्तान की कद काठी ऐसी थी कि अंग्रेज उसकी तुलना नेपोलियन से किया करते थे। यही कारण है कि अंग्रेज़ी सेना टीपू से बहुत ज्यादा डरती भी थी।

टीपू सुल्तान को पकड़ने की अंग्रजों ने लाख कोशिश की थी, लेकिन अंत तक वो उनके हाथ न लगा था। युद्ध के मैदान में जब टीपू सुल्तान ने आखिरी सांस ली, उसके बाद भी अंग्रेज़ी सेना उसके सामने जाने से कतरा रही थी। टीपू के मृत घोषित किए जाने के बाद भी अंग्रजों को लग रहा था कि वो ज़िंदा है। आखिर उस दिन ऐसा क्या हुआ था जिससे टीपू सुल्तान का वो आखिरी दिन बन गया था और उसके मृत होने के बाद भी अंग्रेज उसके पास जाने से क्यों डर रहे थे? इस सवाल का जवाब आपको इस लेख में आगे मिलेगा। आज इस लेख में हम बात करेंगे कि आखिर टीपू सुल्तान की मृत्यु हुई कैसे थी।

प्रथम आंग्ल- मैसूर युद्ध

टीपू सुल्तान की मृत्यु के बारे में अगर हमें जानना है तो, हमें कहानी को शुरू से जानना होगा कि आखिर उस समय क्या परिस्थितियां चल रहीं थीं। जब टीपू 17 वर्ष का था, तो वो अपने पिता के साथ युद्ध लड़ने चल दिया था। 1767 में उन्होंने निज़ाम और मराठा को भी अपनी सेना में शामिल कर लिया था और एक समय इन दोनों ने मिलकर मैसूर पर हमला किया था। इधर हैदर अली, मराठों के साथ एक समझौता करना चाहते थे। वहीं उनका पुत्र टीपू निजामों को अपने साथ मिलाना चाहता था और अंग्रजों के खिलाफ लड़ाई करने का न्योता दे रहा था।

टीपू अपनी रणनीति में कामयाब भी हो चला था। इसके बाद दोनों सेनाओं के बीच जंग हो चली थी। टीपू ने अंग्रेजों को रोकने के लिए मद्रास पर आक्रमण किया था, जिसमें उसे करारी हार सहनी पड़ी थी। इसके बाद हैदर अली को अंग्रजों के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर करने पड़े थे। इसे ही इतिहास में ‘मद्रास की संधि’ के नाम से जाना जाता है।

द्वितीय आंग्ल- मैसूर युद्ध

जब फ्रांसीसियों को ब्रिटिश सेना ने भारत छोड़कर जाने के लिए कहा तो वर्ष 1780 में उन्होंने हैदर अली के साथ एक और युद्ध करने का एलान कर दिया था। इस युद्ध के लिए हैदर अली ने अपने पुत्र टीपू सुल्तान को भेजा था। टीपू के साथ 10,000 घुड़सवार और पैदल सैनिक गए थे। द्वितीय आंग्ल- मैसूर युद्ध की शुरुआत हुई और अंग्रेज़ी सेना और टीपू सेना की आपस में भिड़त हुई।

टीपू सुल्तान की मृत्यु 3

टीपू सुल्तान के आगे ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी टिक ही न पाई और 18 फरवरी, 1782 में अन्नागुडी के पास टीपू ने कर्नल ब्रेथवेट को मात दी थी। इस युद्ध का परिणाम ये हुआ कि इसके बाद 11 मार्च, 1784 को मैंगलोर की संधि हुई, जो इतिहास में बहुत ज्यादा प्रचलित है।

तृतीय आंग्ल- मैसूर युद्ध

तीसरे मैसूर युद्ध से पहले, जब द्वितीय आंग्ल- मैसूर युद्ध चल रहा था, उसी समय टीपू सुल्तान के पिता हैदर अली का निधन हो गया था। हैदर अली का निधन 7 दिसंबर, 1782 में हुआ था। इसके बाद 29 दिसंबर, 1782 को टीपू ने राजगद्दी संभाली।

टीपू के सुल्तान बनने के बाद अंग्रेजों को ऐसा प्रतीत होने लगा था कि वो मैसूर को अपने कब्जे में ले लेंगे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। टीपू एक बहुत ही महान शासक बनकर उभरा था। जब तीसरा आंग्ल- मैसूर युद्ध हुआ, तो इस युद्ध में टीपू को अपने फ्रांसीसी सहयोगियों से कोई भी सहायता नहीं मिली थी। इधर ब्रिटिश इस बार एक बहुत ही मजबूत सेना के साथ आए थे। उन्होंने टीपू की राजधानी सेरिंगापट्टनम को घेर लिया था। इसके बाद 1793 में सेरिंगापट्टनम की संधि पर हस्ताक्षर किए गए थे। तब तक मराठों और बंधुओं ने मैसूर का आधा हिस्सा अपने कब्जे में ले लिया था। वहीं युद्ध के मैदान में टीपू सुल्तान के दो बेटों को ‘टाइगर ऑफ मैसूर’ ने बंदी भी बना लिया था। बाद में टीपू ने उन्हें जल्द ही रिहा भी कर दिया था।

टीपू सुल्तान की मृत्यु 2

टीपू सुल्तान की मृत्यु

अंग्रेज़ी सेना और टीपू के बीच जो दुश्मनी थी, वो कभी खत्म ही न हुई। तृतीय आंग्ल- मैसूर युद्ध के बाद अंग्रेज़ी सेना ने फिर टीपू की राजधानी सेरिंगापट्टनम की तरफ़ मार्च किया। टीपू ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी से शांति की मांग भी की थी, लेकिन उन्हें इसमें कोई सफलता न मिली थी। फिर शुरू हुआ असल युद्व।

14 फरवरी, 1799 को 43 हज़ार सैनिक टुकड़ी लेकर अंग्रेज़ी सेना सेरिंगापटनम पहुंच गई और मई में उन्होंने सेरिंगापटनम पर तोप से हमला करना शुरु कर दिया। इस युद्ध में टीपू सुल्तान के कुछ सैनिकों ने गद्दारी करते हुए अंग्रेजों को किले के अंदर प्रवेश करने का मौका दे दिया था। अंग्रेजो का हमला देखकर टीपू स्वयं युद्ध के मैदान में उतर गया था। उसने एक सैनिक की तरह ही वेशभूषा धारण की, ताकि विपक्ष के लोग उसे न पहचान पाएं और वो युद्ध के मैदान में आ गया।

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लड़ाई ने धीरे- धीरे आग पकड़ ली थी। एक- एक करके टीपू सुल्तान के सारे सैनिक मारे जा रहे थे। इससे उसका भी कहीं न कहीं मनोबल गिर रहा था। पहले तो टीपू पैदल ही लड़ाई लड़ रहा था लेकिन बाद में फिर वो घोड़े पर सवार हुआ और लड़ाई करने लगा। युद्ध के दौरान उसे गोली लग गई और टीपू का घोड़ा भी मार दिया गया। बेहोशी की हालत में भी टीपू आखिरी सांस तक अंग्रेजों से लड़ते रहे थे और उसके बाद उसने दम तोड़ दिया और वहीं ज़मीन पर ही गिर पड़ा। उसके बेहोश होने की ख़बर जब अंग्रेजों को मिली, तो भी अंग्रेजों के लिए ये यकीन कर पाना काफी मुश्किल था कि टीपू मर चुका है। फिर जब अंग्रेजों को यकीन हो गया था कि सच में टीपू सुल्तान की मृत्यु हो चुकी है, तो उन्होंने उसकी ही पालकी से उसे दरबार में भेजा था।

4 मई 1799 को टीपू सुल्तान की मृत्यु हुई, इसके अगले दिन 5 मई 1799 को टीपू सुल्तान का जनाजा निकाला गया और हजारों की भीड़ में लोग इकट्ठे होकर टीपू के आखिरी दर्शन कर रहे थे। टीपू सुल्तान के अंतिम संस्कार के समय में काफी जोर से आंधी आई थी। आंधी इतनी तीव्र थी कि दो अंग्रेज़ी सिपाही भी इस आंधी में चल बसे थे।

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