1857 की क्रांति के सबसे बुजुर्ग स्वतंत्रता सेनानी वीर कुंवर सिंह की मृत्यु 26 अप्रैल 1858 को एक घाव के संक्रमण से हुई थी। आगे पढ़ें वीर कुंवर सिंह की मृत्यु एवं जीवन से जुड़ी महत्वपूर्ण बातें –
आज भी अगर भारत की आज़ादी के किस्सों की बात होती है, तो वीर शहीदों के अमर किस्से सुनकर कहीं न कहीं आखें तो नम हो ही जाती हैं, तो कहीं, उन किस्सों को सुनकर हर भारतीय का सिर गर्व से ऊंचा भी हो जाता है।
भारत को आज़ाद कराने में, हजारों वीर सपूतों ने हंसते-हंसते अपने प्राणों की आहुति दे दी थी। इसमें से कुछ काफी ज्यादा प्रख्यात हुए थे, तो कई सपूत ऐसे भी थे, जिन्हें कोई नहीं जानता है। लेकिन, आज़ादी की लड़ाई में हर किसी का योगदान काफी महत्वपूर्ण और सराहनीय था। इन वीर सपूतों में एक नाम वीर कुंवर सिंह का भी था। इनकी बहादुरी और वीरता की कहानी तो भारत का बच्चा- बच्चा जानता है। जब 1857 की क्रांति हुई, तो वीर कुंवर सिंह सबसे बुजुर्ग स्वतंत्रता सेनानी थे। उस समय उनकी उम्र 80 वर्ष थी। इस उम्र में भी कुंवर सिंह का जोश और आज़ादी के लिए उनका जुनून आने वाली पीढ़ी के लिए एक प्रेरणा स्रोत था।
कुंवर सिंह को ‘तेगवा बहादुर’ और बाबू साहब’ के नाम से भी जाना जाता है। जब अंग्रेज़ी शासन बढ़ने लगा था और अपनी चरम सीमा पर पहुंच गया था, तो उस समय भारत के कोने- कोने से अंग्रेजों के खिलाफ़ लोग आवाज़ उठाने लगाने था। इन विदेशी लुटेरों से देश धीरे- धीरे खोखला होता जा रहा था। इन्हीं लुटेरों से देश को बचाने के लिए ही सभी राजा और प्रजा एकजुट हो रहे थे। सबका साथ देने के लिए ही वीर कुंवर सिंह भी आए थे।
उनकी उम्र सबसे ज्यादा थी और बढ़ती उम्र भी उनकी जज्बे और आज़ादी के प्रति जुनून को कम न कर सकी। अंग्रेज़ी सेना को उन्होंने डटकर टक्कर दी थी और फिर अंग्रेजों ने उन्हें ऐसा घाव दिया, जो कभी ठीक न हुआ। असल में उनके हाथ में गोली लग गई थी और इसलिए उन्होने अपना हाथ काटकर फेंक दिया था। जिसके बाद वो घाव बन गया था और कभी ठीक ही न हुआ। इस घाव की वज़ह से ही एक दिन वीर कुंवर सिंह की मृत्यु हो गई । अंग्रेज़ी सेना से उन्होंने किस तरह से टक्कर ली थी और उनका निधन किस तरह से हुआ, इसके बारे में आप सभी आगे इस आर्टिकल में जानेंगे।
कुंवर सिंह बने विद्रोही सैनिकों के सेनापति
80 साल के कुंवर सिंह उस समय बिहार के शाहाबाद जिले (अब भोजपुर जिले) के जागीरों के मालिक हुआ करते थे। 1857 में 27 जुलाई को विद्रोही सैनिकों, भोजपुरी जवानों और भी आज़ादी के सैनिकों ने वीर कुंवर सिंह का नेतृत्व स्वीकार किया था। इन्हीं के नेतृत्व में भारतीय सैनिकों ने मिलकर आरा हाउस में छिपे सैनिकों को पराजित किया था और आरा हाउस पर वापस कब्जा जमाया था।
आरा हाउस संघर्ष के समय में काफी अंग्रेज आरा हाउस में छिपकर बैठे थे और कुंवर सिंह के नेतृत्व वाली सेना ने आरा हाउस को चारों ओर से घेर लिया था। अंग्रेजों को बचाने के लिए 29 जुलाई को डनबर के नेतृत्व में एक सेना को आरा हाउस भेजा गया। ये सेना दानापुर से आई थी। जब डनबर की सेना वहां पहुंची, तो दोनों सेनाओं में युद्व छिड़ गया। इस युद्ध में डनबर मारा गया था। उसी समय मेजर विंसेंट आयर स्टीमर से प्रयागराज रवाना हो रहा था। इसके मरने की ख़बर सुनकर मेजर विंसेंट आयर ने प्रयागराज जाने का विचार त्याग दिया और तुरंत वो आरा लौटा।
इसके बाद 2 अगस्त 1857 में ‘बीबीगंज का युद्ध’ हुआ। इतिहास में ये युद्ध काफी प्रचलित है। इसके बाद विंसेंट आयर ने आरा पर नियंत्रण पाया और फिर आरा के बाद 12 अगस्त 1857 में उसने जगदीशपुर पर ही हमला कर दिया।
वापस हासिल किया अपना राज्य
12 अगस्त पर विंसेंट ने जगदीशपुर पर हमला किया और 14 अगस्त को ये गढ़ कुंवर सिंह के हाथों से निकल गया। कुंवर सिंह को ये रास न आया और फिर वो अपने सैनिकों को लेकर एक महाभियान पर निकल पड़े। इस अभियान के दौरान उन्होंने रोहतास, रीवां, बांदा, ग्वालियर, कानपुर, लखनऊ होते हुए 12 फरवरी, 1858 को अयोध्या पहुंचे।
इसके बाद 18 मार्च, 1858 को आजमगढ़ से 25 मील दूर अतरौलिया नामक स्थान पर वो और उनकी सेना आकर ठहरी। उनका इतनी दूर आने का सिद्धांत बस इतना सा था कि उन्हें अपने दुश्मनों को हराना था और इसी के साथ ही प्रयागराज और बनारस पर हल्ला बोलते हुए, अपने राज्य जगदीशपुर को वापस हासिल करना था। बताया जाता है कि कुंवर सिंह छापा मार युद्ध नीति में कुशल थे। यही कारण है कि काफी लंबे समय तक अंग्रेज उनके सामने आने से कतरा रहे थे।
इसके बाद अंग्रेजों के पास कोई चारा न बचा और फिर जब उन्हें कुंवर सिंह के इरादे पता चले तो उन्होंने 22 मार्च को सेना को तैयार किया और मिलमैन के नेतृत्व में उन्होंने युद्ध के लिए मैदान में पहुंच गए। कुंवर सिंह ने इस बार चालाकी दिखाई और मिलमैन को चकमा देकर उस पर हमला कर दिया। इसके बाद कर्नल डेम्स मिलमैन की मदद करने के लिए आया, लेकिन उसे भी बुरी तरह से पराजित कर दिया गया। इस युद्ध से अंग्रेज़ी सेना काफी डर गई थी और इसीलिए घबराकर लॉर्ड कैनिंग ने मार्ककेर को युद्ध के लिए रवाना किया। इसकी सहायता के लिए एडवर्ड लगर्ड को भी भेजा गया था। ये युद्ध तमसा नदी के तट पर हुआ था और अंग्रेजी सेना को मुंह की खानी पड़ी थी। युद्ध में अंग्रेज़ी सेना को पराजित करने के बाद कुंवर सिंह ने वापस जगदीशपुर को अंग्रेजों से हासिल किया।
घाव से हुई वीर कुंवर सिंह की मृत्यु
इतने दिग्गज अंग्रेज़ी सैनिकों को भेजने के बाद भी अंग्रेजों को जंग में पराजित ही होना पड़ रहा था। इसलिए अंग्रेज़ी सेना काफी बौखलाई हुई थी। इस बार उन्होंने सेनापति डगलस को अभियान के लिए भेजा था। कुंवर सिंह और डगलस की सेना नघाई नाम के गांव के पास एक दूसरे के सामने आईं और दोनों में युद्ध हुआ।
इस युद्ध के दौरान डगलस ने बहुत कोशिश की थी कुंवर सिंह को पकड़ने की, लेकिन वो हमेशा नाकाम ही रहा। फिर 21 अप्रैल, 1858 में कुंवर सिंह गंगा नदी को पार कर रहे थे, तभी एक अंग्रेजी सैनिक ने उन्हें गोली मार दी। ये गोली जाकर कुंवर सिंह की भुजा में लगी थी। इसके बाद उन्होंने अपनी उस भुजा को काटकर गंगा में प्रवाहित कर दिया था। फिर अपने सैनिकों के साथ वो 22 अप्रैल को जगदीशपुर पहुंचे थे। जगदीशपुर पहुंचने के बाद कुंवर सिंह की काटी हुई भुजा में घाव बन गया था, ये घाव कभी ठीक ही न हुआ था और धीरे- धीरे पूरे शरीर में इसका ज़हर फैल गया था।
इस संक्रमण की वजह से ही 26 अप्रैल 1858 को वीर कुंवर सिंह की मृत्यु हो गई । उनके निधन के बाद उनके छोटे भाई अमर सिंह ने जगदीशपुर की कमान अपने हाथों में ली थी और इसकी रक्षा की।
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