“आज मैं जिंदा हूं, शायद कल न रहूं। मुझे इस बात की परवाह नहीं है। मैंने एक लंबी जिंदगी जी है। मुझे इस बात का गर्व है कि मैंने अपनी जिंदगी लोगों की सेवा करते हुए बिताई है। मैं अपनी आखिरी सांस तक लोगों की सेवा करती रहूंगी और मेरे खून का एक-एक कतरा भारत को मजबूत करेगा।” ये इंदिरा गांधी ने जनसभा को संबोधित करते हुए, अपनी हत्या के एक दिन पहले कहा था। वो कहते हैं न कि इंसान को अपनी मौत का अंदाज़ा हो जाता है। शायद भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को भी अपनी मौत का अंदेशा हो गया था। तभी तो उन्होंने जनसभा को संबोधित करते हुए ये शब्द कहे थे।
इंदिरा गांधी की मृत्यु पूरे देश के लिए एक आश्चर्यजनक घटना थी, क्योंकि देश के प्रधानमंत्री की हत्या, उन्हीं के अंगरक्षकों के हाथों से होना किसी के लिए भी आम बात नहीं हो सकती थी। किसी को भी इस बात की भी भनक न थी कि ऐसा भी कुछ हो सकता है। इंदिरा गांधी की हत्या की खबर सुनकर पूरा देश सदमे में था और इस हत्या के बाद ही सांप्रदायिक हिंसा भी देश भर में बढ़ गई थी। महज़ तीन दिन में करीब तीन हज़ार तीन सौ पचास सिखों का नरसंहार किया गया था। इसमें से करीब 2800 सिख तो केवल राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में मारे गए थे।
लेकिन ये घटना क्यों हुई और कैसे इंदिरा गांधी को उनके ही अंगरक्षकों ने हत्या के घाट उतारा, इसके बारे में ही आगे इस पोस्ट में चर्चा की गई है।
इंदिरा गांधी की मृत्यु: मौत से पहले उन्हें हो गया था आभास
इंदिरा गांधी को कहीं न कहीं अपनी मृत्यु का आभास हो चुका था। इसीलिए वो अक्सर अपने आसपास के लोगों से अपने आसन्न निधन के बारे में बातें किया करती थीं। असल में इंदिरा गांधी ने अपने कार्यकाल के दौरान ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ को अनुमति प्रदान की थी। इस ऑपरेशन के तहत अलगाववादियों को बाहर निकालने के लिए भारतीय सेना ने स्वर्ण मंदिर में प्रवेश ले लिया था। इसके बाद अपने उद्देश्यों को पूरा करने के लिए मंदिर को भारी मात्रा में क्षति पहुंचाई गई और इस ऑपरेशन के अंदर सौ से एक हज़ार के बीच सिखों को मौत के घाट उतारा गया और इसके बाद सिख समुदाय में आक्रोश बढ़ गया था। सबको ये अंदेशा था कि सिख इसका बदला ज़रूर लेंगे। यही कारण था कि लोगों ने इंदिरा गांधी को अपने अंगरक्षकों को बदलने के लिए भी सलाह दी थी, लेकिन इंदिरा ने इससे इंकार कर दिया था।
इंदिरा ने सिख अंगरक्षों को बदलने से किया इंकार
जब ‘ब्लू स्टार ऑपरेशन’ इंदिरा की अनुमति पर किया गया तो उसके बाद सिख आक्रोश बढ़ गया। इसको देखते हुए इंदिरा की सुरक्षा को और बढ़ा दिया गया। लेकिन इंदिरा ने अपनी सुरक्षा को सेना के हाथों में सौंपने से इंकार कर दिया था। यही नहीं जब ये घटना हुई उसके बाद उनसे सिख अंगरक्षों को हटाने की भी बात की गई, लेकिन वो अपने सिख अंगरक्षों को हटाने के लिए तैयार ही न हुईं। इन सबके बाद भी उनकी सुरक्षा में इंडो तिब्बत के कमांडो को शामिल किया गया था। इंदिरा के साथ- साथ उनके परिवार के आसपास भी सुरक्षा के कड़े प्रबंध किए गए थे और सबकी सुरक्षा को बढ़ा दिया गया था।
ऐसे बना था इंदिरा की हत्या का प्लान
इंदिरा का अंगरक्षक बेअंत सिंह अक्सर गुरुद्वारे जाया करता था। ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद एक दिन वो अपने चाचा केहर सिंह के साथ गुरुद्वारे गया तो वहां पर कथा सुनते- सुनते उसकी आंखें भर आईं। ये देखकर उसका चाचा उससे कहता है कि रो मत बदला ले। बस यहीं से बेअंत सिंह के अंदर बदले की ज्वाला जल उठती है। ये विचार शुरुआत में सिर्फ बेअंत सिंह और उसके चाचा केहर सिंह के बीच में ही थी, लेकिन धीरे- धीरे जसवंत सिंह भी इस प्लानिंग में शामिल हो गया। फिर सितंबर का वो महीना होता है, जब इन तीनों की प्लानिंग को और हवा मिलती है। असल में सितंबर के महीने में इन्हें पीएम आवास में एक बाज़ दिखाई देता है। ये बाज़ जसवंत सिंह को दिखता है और फौरन बलबीर, बेअंत सिंह को बुलाता है। बाज़ को देखते ही दोनों एक दूसरे को देखते हैं और ये तय करते हैं कि ये बाज़ उनके लिए संदेश लेकर आया है कि घटना को अंजाम देना है। ऐसा इसलिए क्योंकि सिख के जो दसवें गुरु थे गुरु गोविंद सिंह, उनका रिश्ता बाज से था। फिर जब उन दोनों ने बाज़ को पीएम आवास पर देखा तो उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ कि ये उनके गुरु के द्वारा भेजा गया है।
31 अक्टूबर, 1984 को हुई थी इंदिरा गांधी की मृत्यु
इंदिरा गांधी की हत्या की साजिश तो दोनों ने कर ही ली थी, बस अब इस हत्या को अंजाम देना बाकि था। ऐसा बताया जाता है कि जसवंत सिंह और बेअंत सिंह ने इंदिरा की हत्या से पहले अपनी ड्यूटी बदलवाई थी। 30 अक्टूबर को जसवंत सिंह ने एक कांस्टेबल से कहा था कि उसके पेट में दिक्कत है और वो दूसरे कांस्टेबल की जगह पर रहना चाहता है, क्योंकि कांस्टेबल की जगह से टॉयलेट नज़दीक था। इसके बाद उसने अपनी ड्यूटी बदल ली। वहीं दूसरी ओर बेअंत सिंह की रात की ड्यूटी थी, लेकिन उसने भी किसी बहाने से अपनी ड्यूटी रात से दिन में बदलवा ली थी। फिर अगले दिन 31 अक्टूबर को इंदिरा गांधी सुबह 9 बजकर 10 मिनट पर दिल्ली के 1 सफदरगंज रोड स्थित अपने आवास से बाहर आईं। इसके बाद वो 1 अकबर रोड पर स्थित अपने निजी कार्यालय में चली गईं। इंदिरा के साथ उनका एक कांस्टेबल दल भी साथ गया था, जिसमें कांस्टेबल रामेश्वर दयाल और नारायण सिंह शामिल थे। इनके साथ घरेलू सहायक नाथूराम और निजी सचिव आरके धवन भी थे। फिर जैसे ही इंदिरा बगीचे से होकर नीचे की ओर जानें लगीं, वैसे ही बेअंत सिंह ने इंदिरा पर अपनी सर्विस रिवाल्वर से ताबड़तोड़ फायरिंग शुरु कर दी। इसके बाद इंदिरा तुरंत ज़मीन पर गिर पड़ी। कुछ ही दूर पर जसवंत सिंह भी खड़ा था, तभी बेअंत सिंह उससे चिल्लाकर कहता है कि, ‘देख क्या रहे हो, गोली चलाओ।’ फिर जसवंत सिंह और बेअंत सिंह दोनों ने मिलकर इंदिरा पर गोलियों की बौछार कर दी। 25 सेकंड तक चली इस गोलीबारी में, जवाबी फायरिंग भी हुई, जिसमें से एक घायल भी हो गया था और दोनों को पकड़ लिया गया था। घायल इंदिरा को तुरंत सफेद एंबेसडर कार से एम्स अस्पताल ले जाया गया। ऑपरेशन करके गोलियां भी बाहर निकाली गईं लेकिन तब तक इंदिरा का काफी खून बह चुका था और करीब 2 बजकर 23 मिनट पर इंदिरा के मरने की खबर पूरे देश में फैल गई।
इंदिरा गांधी का अंतिम संस्कार
इंदिरा की मरने की खबर जब सबको मिली, उसके बाद उनके शव को अस्पताल से 1 नवंबर की सुबह दिल्ली की गलियों से होते हुए तीन मूर्ति भवन में ले जाकर रखा गया। इंदिरा के शव को जनता के दर्शन और सम्मान के लिए वहां रखा गया। इसके बाद 3 नवंबर को उनका अंतिम संस्कार किया गया। इंदिरा का अंतिम संस्कार हिंदू रीति रिवाजों से किया गया था। मंत्रोच्चारण के बाद इंदिरा के बेटे राजीव गांधी उनकी चिता को अग्नि प्रदान करते हैं। उनके अंतिम संस्कार में देश- विदेश से लोग शामिल हुए थे।
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