कैसे हुई हुमायूं की मृत्यु ? उसकी मृत्यु स्वाभाविक मौत थी या किसी की साजिश ? आगे इस पोस्ट में पढ़ें हुमायूं की मृत्यु एवं जीवन से जुड़ी महत्वपूर्ण बातें –
मुगल सल्तनत की नींव रखने वाले बाबर का पुत्र था हुमायूं। हुमायूं अक्सर बीमार रहा करता था, यही कारण है कि उसकी मृत्यु को लेकर अक्सर असमंजस की स्थिति रहती है। हुमायूं की मृत्यु को लेकर हर कोई अलग अलग कहानी बताता है। हुमायूं को लेकर इतिहास में भी हर जगह यही कहा गया है कि वो बहुत बीमार पड़ जाया करता था। एक बार हुमायूं इतना बीमार हो गया था कि दिनों दिन उसकी हालत बस बिगड़ती ही जा रही थी, धीरे- धीरे सबकी उम्मीदें भी खत्म सी होने लगी थीं। ऐसे में बाबर को अपने पुत्र हुमायूं की बड़ी चिंता हुई। बताया जाता है कि उस समय बाबर ने अपने पुत्र की पलंग के आसपास तीन चक्कर लगाए थे और फिर उसने प्रार्थना की थी कि उनका बेटा हुमायूं बच जाए। अगर हुमायूं की ज़िंदगी के बदले बाबर अपनी ज़िंदगी दे सकता है, तो वो अपनी ज़िंदगी देने के लिए तैयार था। इसी के बाद से बाबर की हालत दिन ब दिन बिगड़ने लगी और हुमायूं की हालत में सुधार होता चला गया। जब बाबर को देखकर ऐसा लगने लगा था कि अब शायद बाबर न बचें, तो हुमायूं को संभल से वापस बुला लिया गया।
हुमायुं बाबर की मृत्यु से चार दिन पहले आगरा पहुंचा था। बाबर को पता था कि अब वो न बच पाएगा इसीलिए उसने अपने सारे मंत्री और सलाहकारों के सामने ये एलान कर दिया कि उसकी मौत के बाद उसका उत्तराधिकारी और मुगल शासन का अगला शासक हुमायूं ही होगा। जब हुमायूं ने मुगल सम्राज्य की गद्दी संभाली थी, तो उसकी उम्र महज़ 27 वर्ष थी। 30 दिसंबर, 1530 को हुमायूं का राज्याभिषेक किया गया। इसके बाद शेरशाह सूरी ने हुमायूं को पराजित भी किया, जिसके बाद मानो लगा था कि मुग़ल शासन का अंत हो चला है, लेकिन फिर हुमायूं ने दोबारा अपना राजपाठ वापस हासिल किया। दोबारा राज्य हासिल करने के बाद और तख्त पर बैठने के बाद हुमायूं ज्यादा दिन सुख नहीं भोग सका। राजपाठ हासिल करने के कुछ समय बाद ही हुमायूं की मृत्यु हो गई। हुमायूं की मृत्यु कैसे हुई और कब हुई, ये हमेशा से एक बड़ा सवाल रहता है क्योंकि हुमायूं की मृत्यु यूं अचानक होना, पूरे राज्य के लिए काफ़ी दुखद घटना थी और उसके बाद उसका उत्तराधिकारी कौन होगा, इस बात को लेकर भी असमंजस था। आज इस आर्टिकल में हम इसी बारे में बात करेंगे कि आखिर हुमायूं की मृत्यु हुई कैसे थी? उसकी मृत्यु होना स्वाभाविक था या फिर किसी की साजिश?
हुमायूं की मृत्यु कैसे हुई?
1556 में 24 जनवरी का दिन था जब हुमायूं रोज़ की तरह अफ़ीम की अपनी आलजीरी खुराक लेता है। उसके बाद वो हज यात्रा से वापस आए लोगों से मुलाकात करने की इच्छा करता है। इसके लिए वो उन लोगों को अपने पुस्तकालय की छत पर बुलाता है। उसका पुस्तकालय लाल पत्थर से बना हुआ था। छत पर बुलाने का एक कारण ये भी था कि हुमायूं चाहता था कि जो लोग जुमे की नमाज़ के लिए बगल में मस्ज़िद में शामिक हुए हैं, वो सब हुमायूं का दीदार पा सकें। ऐसा बताया जाता है कि वो दिन बाकी दिन से काफी अलग था, उस दिन ठंडी हवा चल रही थी और ठंड भी कुछ ज्यादा ही थी। हुमायूं सीढ़ी से जैसे ही नीचे उतरने लगा, वैसे ही पास की मस्ज़िद से अज़ान की आवाज़ उसकी कानों में पड़ी। ऐसा बताया जाता है कि हुमायूं काफ़ी धार्मिक था। अज़ान की आवाज़ सुनते ही, वो झुककर सजदा करने के लिए बैठने की कोशिश करने लगा। तभी उसका पैर उसके जामे के घेरे में फंस गया। पैर फंसते ही वो फिसला गया और सीढ़ियों से लुढ़कते हुए नीचे आ गिरा। उसके सहायक जो उसके साथ चल रहे थे, वो उसको पकड़ने की कोशिश भी करते हैं, लेकिन वो हुमायूं को पकड़ने में सफल नहीं हो पाए। सीढ़ियों से गिरने की वजह से हुमायूं के सिर पर गहरी चोट लगी और खून काफी बह गया था। हुमायूं को तीन दिन तक इलाज़ के लिए रखा गया लेकिन उसने अपनी आंखें न खोली और 27 जनवरी, 1556 में हुमायूं की मृत्यु हो गई।
हुमायूं का साम्राज्य
जब हुमायूं शासक बना तब उसकी इच्छाशक्ति बहुत ही दृढ़ थी। उसका पहला अभियान महमूद लोदी के साथ 1531 में शुरु हुआ था। ये अभियान हुमायूं का जौनपुर के पास शुरु हुआ था। इसमें हुमायूं ने जीत हासिल की थी। इसके बाद शेरशाह ने अपने शासन को बढ़ाना शुरु किया और उसकी बढ़ती हुई ताकत को रोकने के लिए ही हुमायूं को शेरशाह के साथ 1534 में अपने दूसरे अभियान के लिए निकलना पड़ा। मंजिल तक पहुंचने से पहले ही हुमायूं को बहादुर शाह के खतरे से निपटना पड़ गया था। इसके बाद हुमायूं मालवा और गुजरात को जीतने में व्यस्त हो गया और उधर शेरशाह अपने पैर और पसारने लगा। उसकी ताकत और मजबूत होती चली गई। फिर 1537 में हुमायूं ने शेरशाह की तरफ बढ़ने की तैयारी की। सबसे पहले उसने बंगाल की राजधानी गौड़ पर अपना कब्ज़ा जमाया। इसके बाद हुमायूं कुछ दिनों के लिए शांत हो गया। लेकिन दूसरी ओर शेरशाह थमने का नाम नहीं ले रहा था, और उसने जौनपुर, बनारस आदि पर भी अपना कब्ज़ा जमा लिया। इसी के बाद 1539 में चौसा का युद्ध हुआ। जिसमें हुमायूं की करारी हार हुई। ये हार इसलिए हुई क्योंकि हुमायूं के राजधानी वापस लौटने के रास्ते में शेरशाह बीच में ही बैठा हुआ था और फिर दोनों में घमासान युद्ध हुआ। इस युद्ध में हुमायूं की बांह में एक तीर गया था और हुमायूं घायल हो गया। साथ ही उसके सैनिक भी उसके खिलाफ होने लगे। इसीलिए हुमायूं तुरंत अपनी जान बचाने के लिए वहां से भाग गया। बीच में नदी में उसका घोड़ा, नदी की तेज़ धार के साथ बह गया, फिर एक भिश्ती ने अपनी मुश्क देकर के हुमायूं को डूबने से बचाया था।
चौसा के बाद कन्नौज में भी मिली हार
हुमायूं चौसा में मिली हार को भुला नहीं पाया और फिर अगले साल वो अपनी हार का बदला लेने के लिए निकल पड़ा। लेकिन उसके साथियों ने उसका साथ बीच में ही छोड़ दिया और 17 मई, 1940 में उसे एक बाद फिर से हार का स्वाद चखने को मिल गया। इस हार में भी विपक्षी शेरशाह सूरी था लेकिन ये कन्नौज का युद्व था। कन्नौज के इस युद्ध में हुमायूं की सेना शेरशाह की सेना से काफ़ी बड़ी और मजबूत थी, बावजूद इसके उसे हार ही मिली। कन्नौज में बुरी तरह से हारने के बाद, एक बार फिर हुमायूं भागकर किसी तरह से कन्नौज से आगरा आ गया। हुमायूं के आगरा पहुंचने से पहले ही उसके हारने की ख़बर आगरा पहुंच गई थी। इधर आगरा पहुंचने के रास्ते के बीच में हुमायूं ने काफ़ी लूटपाट भी की । इसी में इसके भाइयों के बीच मतभेद भी पैदा हो गया, और आखिर में पिता की मौत के दस साल के भीतर ही हुमायूं को 1540 में आगरा भी छोड़ना पड़ा। हुमायूं जब आगरा छोड़कर जा रहा था, तभी शेरशाह ने उसे डराने की योजना बनाते हुए एक राजपूत सिपाही को जिसका नाम बहादत्त गौड़ होता है, हुमायूं का पीछा करने के लिए भेज दिया था। उसका मकसद सिर्फ हुमायूं को भारत से बाहर खदेड़ने का था, न कि उसे मारने का। और हुआ भी कुछ ऐसा ही। हुमायूं फिर भारत छोड़कर भाग गया। इसके बाद उसने अपने भाइयों से एकता बनानी चाही, ताकि फिर से राजपाठ हासिल किया जा सके। लेकिन उसके भाई कामरान ने उसका साथ देने से इंकार कर दिया और वो अपने सैनिकों के साथ लाहौर के लिए निकल पड़ा। फिर लाहौर से हुमायूं शेरशाह को एक खत लिखा जिसमें उसने शेरशाह से खुद को लाहौर में पनाह दिलाने के लिए आग्रह किया । इस पर शेरशाह उससे काबुल जाने की बात की और फिर इसके बाद करीब 15 सालों तक हुमायूं, सिंध, काबुल और ईरान में इधर उधर भटकता रहा।
भारत पर हमला और राज्य वापसी
हुमायूं के भारत छोड़ जाने के बाद 1545 में शेरशाह की किसी विस्फोट से मौत हो गई। इसके बाद शेरशाह के बेटे ने उसका राजभार संभाला। लेकिन फिर उसके बेटे की भी 1553 में किसी कारण से मौत हो गई। शेरशाह के बेटे की मौत के बाद उसका राजपाठ डगमगाने लगा था। ये ख़बर काबुल तक पहुंच गई कि सलीम शाह सूरी की मृत्यु हो गई और उसके बेटे को भी उसके चाचा के हाथों मार दिया गया है। बस ये खबर सुनते ही हुमायूं की आंखों में फिर से भारत को वापस पाने की लालसा जग उठी। वो फिर काबुल से भारत की ओर कूच करने निकल पड़ा। 1554 में वो सिंधु नदी को पार किया और बैरम खां को अपना साथ देने के लिए बुलाया। बैरम खां के साथ उसका 12 साल का बेटा अकबर भी आया। इतने में सूरी वंश के दावेदार भी एक से तीन हो चुके थे। जिसमें सिकंदर शाह का नाम प्रमुख रूप से लिया जाता है। 24 फ़रवरी, 1955 में हुमायूं ने लाहौर में प्रवेश किया। हुमायूं के आते ही सिकंदर डर गया और मैदान छोड़कर भाग खड़ा हुआ। जिसके बाद 23 जुलाई, 1555 में वापस हुमायूं दिल्ली में दाखिल हुआ और अपना राजपाठ और राज्य वापस हासिल कर लिया।परंतु हुमायूं ज्यादा दिन तक ये सुख नहीं भोग पाया और उसकी मृत्यु हो गई।
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