Press "Enter" to skip to content

रानी लक्ष्मीबाई की मृत्यु कब हुई ?

17 जून, 1858 को अंग्रेजो के साथ वीरता से लड़ते हुए रानी लक्ष्मी बाई ने अपने प्राणों की आहुति दे दी। रानी लक्ष्मीबाई की मृत्यु एवं जीवन से जुड़ी महत्वपूर्ण बातें आगे इस पोस्ट में पढ़ें –

‘बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी।’ ये कविता की वो पंक्तियां हैं जो भारत के बच्चे- बच्चे की जुबान पर रहती है। आखिर रहे भी क्यों न? झांसी वाली रानी थी ही इतनी वीर, कि उनकी वीरता की कहानियां आज भी हम सब पढ़ते हैं। सुभद्रा कुमारी की ये कविता, सच में हर भारतीय के दिल में एक शक्ति और विश्वास की लौ जगा देती है। रानी लक्ष्मीबाई के साहस और उनकी वीरता का वर्णन करने वाली इस कविता से बेहतर न कोई कविता कभी थी और शायद ही आने वाले समय में इससे बेहतर कोई कविता होगी, जो रानी लक्ष्मीबाई को वर्णित कर सके। वैसे, इस कविता की बात जब उठी ही है तो मेरा आप सभी से ये सवाल है कि इन पंक्तियों को सुनकर आपको रानी लक्ष्मीबाई की कैसी छवि समझ में आती है? मेरे विचारों में तो शायद इन पंक्तियों को पढ़ने के बाद मन मस्तिष्क में एक ऐसी वीरांगना की तस्वीर छप जाती है जो दुश्मनों को बिना डरे, पूरे साहस से ललकार रही होती है।

स्वतंत्रता संग्राम का प्रतीक रानी लक्ष्मीबाई

रानी लक्ष्मीबाई की मृत्यु

रानी लक्ष्मीबाई भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम का प्रतीक थीं। अगर आप भारतीय इतिहास को उठाकर देखेंगे तो आपको समझ आएगा कि रानी लक्ष्मीबाई ने कैसे अंग्रेजों से अकेले ही मोर्चा उठा लिया था। रानी लक्ष्मीबाई न सिर्फ अंग्रेज़ों के सामने अकेली डटकर खड़ी रहीं, बल्कि उन्होंने अकेले ही अंग्रेज़ों को दुम दबाकर भागने पर भी मजबूर किया था। इन्होंने पूरी बहादुरी और साहस से ब्रिटिश सेना के साथ लड़ाई की थी और हर भारतीय के सीने में आजादी के लिए लड़ने की ज्वाला जला के गईं थीं। रानी लक्ष्मीबाई को लेकर ऐसा बताया जाता है कि रानी लक्ष्मीबाई की मृत्यु भी अंग्रेज़ों के साथ जंग में लड़ते हुए ही हुई थी। रानी लक्ष्मीबाई ने हंसते- हंसते, अपनी पीठ पर, अपनी छोटी संतान को लेकर, अपने प्राणों का देश के लिए बलिदान कर दिया था। जिस दिन रानी लक्ष्मी बाई ने अंग्रेज़ों के सामने अपने दम तोड़े थे, वो दिन था 17 जून, 1858 का। जब अंग्रेज़ों ने रानी लक्ष्मीबाई को मौत के घाट उतारा, उस समय मानो रानी के रक्त की एक- एक बूंद चिल्ला- चिल्लाकर ये कह रही हो कि, ‘झांसी सिर्फ रानी लक्ष्मीबाई की है और ये झांसी वो किसी को नहीं देंगी’।

रानी लक्ष्मीबाई की मृत्यु होना हर किसी के लिए काफ़ी दुखद था क्योंकि ऐसी बहादुर वीरांगना देश ने पहले कभी देखा ही नहीं था । रानी लक्ष्मीबाई की मृत्यु से हर कोई सदमे में था, जिस को भी उनके मरने की खबर मिल रही थी, वही ये ख़बर सुनकर स्तब्ध हो जा रहा था। रानी लक्ष्मीबाई को मारना इतना आसान भी नहीं था। उस वीरांगना में इतनी साहस और वीरता थी कि अंग्रेज उसके सामने थर- थर कांपते थे। उनके बस की बात नहीं थी कि वो सामने से रानी लक्ष्मीबाई को मार पाते। लेकिन अंग्रेजी सेना की चालाकी के आगे इस वीरांगना की चल न पाई। आखिर में रानी लक्ष्मीबाई का अंत हो गया। ऐसा बताया जाता है कि मृत्यु होने के बाद भी लक्ष्मीबाई अंग्रेजों के हाथ नहीं आई थीं। आखिर कैसे? चलिए ये आगे इस पोस्ट में पढ़ते हैं, साथ ही ये भी जानते हैं कि अंग्रेजों ने किस चालाकी से रानी लक्ष्मीबाई को मौत के घाट उतारा था।

रानी लक्ष्मीबाई का जीवन और झांसी का उत्तराधिकारी

रानी लक्ष्मीबाई की मृत्यु 1

रानी लक्ष्मी बाई की मृत्यु कैसे हुई, ये जानने से पहले इनके बारे में थोड़ा जान लेते हैं। इनका जन्म एक ब्राह्मण परिवार में वाराणसी में हुआ था। इनकी मां की ममता की छाया इनसे बचपन में ही छिन ही गई थी। इसके बाद इनके पिता इन्हें काफ़ी प्यार करते थे। बचपन में इनके पिता इनको मणिकर्णिका नाम से बुलाते थे। बचपन से ही लक्ष्मीबाई को युद्ध कौशल में निपुण किया गया था। 14 साल की उम्र के होते ही, इनका विवाह कर दिया गया था। इनका विवाह राजा गंगाधर नेवलकर से हुआ था जो कि झांसी के राजा थे। विवाह होने के बाद ही आगे चलकर इनका नाम रानी लक्ष्मीबाई पड़ा था। विवाह होने के पश्चात रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया, वो पुत्र ज्यादा समय तक जीवित न रह सका और चार महीने के भीतर ही उसका निधन हो गया। इसके बाद फिर इनके पति का भी 11 साल के भीतर ही निधन हो गया था। इसके बाद उनकी ज़िंदगी ही बदल गई और फिर उन्होंने ठान लिया कि अपने आख़िरी दम तक वो अपने साम्राज्य तथा साम्राज्य के लोगों को रक्षा करेंगी।

उस समय ब्रिटिश गवर्नर जनरल लार्ड डलहौजी थे। जैसे ही डलहौजी को झांसी के राजा के मरने की ख़बर मिली, वो खुश हो गया क्योंकि उसको झांसी पे कब्जा करने का इससे अच्छा मौका नहीं मिलने वाला था। कहीं न कहीं लक्ष्मीबाई भी ये बात जानती थीं कि अंग्रेज़ों की नज़र झांसी पर है, इसीलिए उन्होंने समझदारी दिखाई और राजा गंगाधर के चचेरे भाई दामोदर को दत्तक पुत्र घोषित कर दिया। इसके बाद ही ब्रिटिश गवर्नर जनरल लार्ड डलहौजी ने झांसी पर कब्जा करने के आदेश जारी कर दिए थे और रानी के दत्तक पुत्र को झांसी का अगला उत्तराधिकारी बनाने से मना कर दिया था। डलहौजी के इंकार करने के बाद रानी के मन में आक्रोश पैदा हो उठा। तभी उनके मन में विद्रोह की भावना जगी और उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा उठा लिया।

अंग्रेज़ों के खिलाफ जंग लड़ते हुए उन्होंने एक नारा दिया था, जो कि काफी सुप्रसिद्ध हुआ था। उन्होंने कहा था कि, ‘मैं मेरी झांसी नहीं दूंगी’। रानी लक्ष्मीबाई और अंग्रेजों के बीच छिड़ी जंग करीब 2 हफ्तों तक चली थी। रानी ने घेराबंद रहते हुए भी अंग्रेज़ों को कड़ी टक्कर दी थी। उन्हें कभी भी इस तरह से किसी ने भी लड़ते हुए नहीं देखा था। पहली बार रानी लक्ष्मीबाई को अंग्रजों के खिलाफ़ एकदम निडर होकर लड़ते हुए कैप्टन रॉड्रिक ब्रिग्स ने देखा था। ये अंग्रेज़ी सेना में शामिल थे। घोड़े की रस्सियां दांतों में दबाए हुए, छोटे पुत्र दामोदर राव को अपनी पीठ पर बांधकर रानी दोनों हाथों में तलवार लिए, एक साथ वार कर रही थी।

रानी लक्ष्मीबाई की मृत्यु

रानी लक्ष्मीबाई की मृत्यु 2

अंग्रेजों ने बहुत ही बेरहमी से रानी पर एक साथ कई वार किए थे। बताया जाता है कि जब वो बुरी तरह से घायल हो गई थीं तब उन्होंने सोचा कि वो जंग के मैदान से दूर चली जाएंगी और अंग्रेजों के हाथ कभी न आएंगी। क्योंकि उन्हें ये कत्तई मंजूर नहीं था कि उनकी मौत अंग्रेज़ों के हाथों में हों। उन पर तलवार से अंग्रेजों ने कई वार अब तक कर दिए थे। जब अंग्रेज़ों को लगा रानी इतनी आसानी से प्राणों को नहीं त्यागेंगी तो उन्होंने राइफल से उन पर गोली चला दी। रानी फिर भी हार नहीं मान रही थीं, घायल होने के बाद भी वो अंग्रेजों के सामने डटकर खड़ी थीं। अभी भी उनमें इतना साहस था कि वो अंग्रेजों को ईंट से ईंट बजा सकती थीं। इसी बीच एक अंग्रेज ने चालाकी दिखाई और उन्हें घायल देखकर उनके सिर पर वार किया। इससे उनका सिर फट गया और खून बहने लगा। इसके बाद भी रानी ने उस अंग्रेजी सैनिक को मारने की कोशिश की मगर उनमें इतनी ताकत न थी कि वो उसे घायल कर पाती। सिर पे चोट लगने के बाद वो वहीं धड़ से गिर गईं। जैसे ही रानी ज़मीन पर गिरी, वैसे ही उनका एक सैनिक दौड़कर उनके पास आया, और उन्हें उठाकर पास के एक मंदिर में ले गया। उस समय तक रानी की हल्की हल्की सांसे चल रही थीं। रानी ने उस सैनिक से ये कहा कि, ‘मेरे बेटे की रक्षा करना।’ इसके बाद उनकी आंखें बंद होने लगीं और अंत में उन्होंने मंदिर के पुजारी से कहा कि, ‘अंग्रेजों को मेरा शरीर नहीं मिलना चाहिए’। वो नहीं चाहती थीं कि अंग्रेज़ों के हाथ उनका शरीर लगे। इसके बाद रानी ने अपने प्राण त्याग दिए थे। रानी की अंतिम इच्छा के अनुसार ही वहां मौजूद लोगों ने लकड़ियों का इंतजाम करके उनके शरीर को अग्नि प्रदान करके उनका अंतिम संस्कार किया। बस कुछ इस तरह से ही इतिहास की इस वीरांगना का अंत हुआ था।

Read This Also: राजीव गांधी की मृत्यु कब हुई?

Be First to Comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *