कुल के सभी अज्ञात अतृप्त आत्माओं को मुक्ति दिलाने के लिए किया जाता है त्रिपिंडी श्राद्ध। जानें इससे जुड़ी सभी महत्वपूर्ण बातें –
हिंदू धर्म के पवित्र पुराण, गरुड़ पुराण के मुताबिक जब किसी व्यक्ति की मृत्यु होती है तो उसके अंतिम संस्कार के पूरे क्रिया कर्म के बाद जब उसका 13वीं संस्कार विधि विधान से कर दिया जाता है, तब उसकी आत्मा पृथ्वी लोक से यमपुरी की तरफ यात्रा के लिए निकल जाती है। इस यात्रा को पूरा करने में आत्मा को 11 महीने का समय लगता है और 12वें महीने में आत्मा यमलोक में यमराज के द्वार में पहुंचती है। इस 11 महीने के सफर में आत्मा को भोजन और जल नहीं मिल पाता है।
धार्मिक मान्यता के अनुसार मृतक के परिवार वाले उसकी मृत्यु के पश्चात जब विधि विधान से उसका श्राद्ध, पिंडदान एवं तर्पण करते हैं तो इससे मृतक की आत्मा को भूख और प्यास से संतुष्टि मिलती है। और आत्मा तृप्त होकर यमराज के दरबार में प्रवेश करती है।
यदि श्राद्ध का अनुष्ठान विधि विधान से नहीं किया जाता, पिंडदान और तर्पण नहीं किया जाता तो मृतकों की आत्मा को संतुष्टि नहीं मिलती है और वो दर-बदर भटकते रहते हैं। इन अतृप्त आत्माओं की वजह से परिजनों के जीवन में सदैव कष्ट बना रहता है। ऐसी अतृप्त आत्माओं की तृप्ति के लिए त्रिपिंडी श्राद्ध किया जाता है।
क्या है त्रिपिंडी श्राद्ध ?
त्रिपिंडी श्राद्ध को काम्य श्राद्ध के नाम से भी जाना जाता है। इसका मतलब है तीन पीढ़ियों के पूर्वजों का विधिवत रूप से किया जाने वाला श्राद्ध। इन तीन पीढ़ियों में पितृवंश, मातृवंश, गुरुवंश या ससुराल के वंश की तीन पीढियां शामिल हैं।
हिंदू धर्म के मान्यता के अनुसार ऐसे पितर अथवा पूर्वज, किसी कारणवश जिनका श्राद्ध विधि विधान से न किया गया हो, उनकी अतृप्त आत्मा को संतुष्टि न मिल पाने की वजह से वो दर-बदर भटकती रहती है। इन भटकती आत्माओं की वजह से कई पीढ़ियां कष्ट में अपना जीवन व्यतीत करती है। ऐसी स्थिति में पूर्वजों की अतृप्त आत्माओं की संतुष्टि एवं सद्गति के लिए त्रिपिंडी श्राद्ध किया जाता है।
नोट: प्रायः जब परिवार में किसी की आकस्मिक, अकाल मृत्यु हो जाती है, जैसे परिवार में किसी बच्चे या अविवाहित पुरुष अथवा महिला की मृत्यु हो जाती है तो ऐसे में उनकी आत्माएं तृप्त नहीं हो पाती। और भूत प्रेत बनकर इधर उधर भटकती रहती है, और परिवार के लिए कष्ट उत्पन्न करती रहती है। ऐसी आत्माओं की संतुष्टि के लिए त्रिपिंडी श्राद्ध करना आवश्यक हो जाता है।
कब करना चाहिए त्रिपिंडी श्राद्ध ?
जब घर में हमेशा ही क्लेश बना रहे। संतानहीना, धन हानि, तरक्की में बाधा, घर में असमय किसी की मृत्यु होना, जीवन अत्यंत संघर्ष से भरा होना, कुंडली में पितृ दोष होना इत्यादि लक्षण देखने को मिले तो ये समझ जाना चाहिए कि कहीं न कहीं ये पूर्वजों अथवा पितरों की अतृप्त, भटकती आत्माओं का ही श्राप है। इससे मुक्ति पाने के लिए विधि विधान से त्रिपिंडी श्राद्ध करना चाहिए।
त्रिपिंडी श्राद्ध में त्रिदेव यानी ब्रह्मा, विष्णु, महेश की पूजा की जाती है। ये मृत आत्माओं के हृदय की तकलीफ को दूर कर उनके क्रोध को शांत करते हैं।
धार्मिक मान्यता के अनुसार त्रिपिंडी श्राद्ध, पितृपक्ष में पूर्णिमा, अष्टमी, एकादशी, चतुर्दशी एवं अमावस्या तिथि को करना चाहिए। इन सबमें अमावस्या तिथि को त्रिपिंडी श्राद्ध के लिए सबसे उचित माना गया है। ऐसी धार्मिक मान्यता है कि पितरों का एक दिन, जीवित मनुष्य के एक माह के बराबर होता है। अमावस्या तिथि को पितरों का दिन बदल जाता है इसलिए इस तिथि पर त्रिपिंडी श्राद्ध करने से सभी पूर्वजों की आत्मा को तृप्ति मिलती है।
कहां करे त्रिपिंडी श्राद्ध ?
त्रिपिंडी श्राद्ध के लिए हिंदू धर्म में कई पौराणिक स्थल बताए गए हैं, जहां विधि विधान से त्रिपिंडी श्राद्ध करने से पितरों की आत्मा को मोक्ष प्राप्त होता है। और परिवार के सारे कष्ट खत्म होते हैं। ये स्थान निम्नलिखित हैं –
- त्रयंबकेश्वर (त्रिंबक, महाराष्ट्र)
- महाबलेश्वर (महाराष्ट्र)
- हरिहरेश्वर (दक्षिण काशी, महाराष्ट्र)
- गरुणेश्वर (गुजरात)
- गोकर्ण (कर्नाटक)
- पिशाच मोचन (वाराणसी, उत्तर प्रदेश)
- हरिद्वार
- उज्जैन
- बद्रीनाथ
- रामेश्वरम
- कुंभकोणम
- गया (बिहार)
नोट: यूं तो त्रिपिंडी श्राद्ध के लिए भारत में कई पवित्र स्थलों को शामिल किया गया है, लेकिन महाराष्ट्र के नासिक में स्थित त्रयंबकेश्वर मंदिर को इसके लिए सर्वोच्च बताया गया है।
त्रिपिंडी श्राद्ध का महत्व –
त्रिपिंडी श्राद्ध करने से कई पीढ़ियों की अतृप्त आत्माओं को एक साथ संतुष्टि मिलती है, और उन्हें सद्गति प्राप्त होती है। भूत प्रेत की बाधा से मुक्ति मिलती है एवं कुंडली से पितृ दोष समाप्त होता है।
इस श्राद्ध से जुड़ी सबसे खास बात ये है कि हिंदू धर्म में प्रायः जब किसी बुजुर्ग अथवा वयस्क का निधन होता है तो उसके क्रिया कर्म विधि विधान से कर दिया जाता है, परंतु यदि किसी बच्चे की मृत्यु होती है, तो प्रायः उसको दफना दिया जाता है, और उसके बाद किसी क्रिया कर्म को करने का कोई प्रावधान नहीं है। खासतौर से बच्चों का श्राद्ध करते हुए बहुत कम ही लोगों को देखा जाता है। ऐसे में बच्चों की आत्मा को संतुष्टि नहीं मिल पाती है। परंतु जब त्रिपिंडी श्राद्ध किया जाता है, तो इसमें होने वाली पूजा से बच्चे, युवा, वयस्क व बुजुर्ग सभी अतृप्त आत्माओं को मोक्ष मिलता है।
इस श्राद्ध को करने से कुंडली से पितृदोष का निवारण होता है। घर में सुख शांति आती है। धन लाभ की प्राप्ति होती है। नौकरी व व्यवसाय में आ रही बाधा दूर होती है।
त्रिपिंडी श्राद्ध कौन कर सकता है ?
धार्मिक मान्यता के अनुसार त्रिपिंडी श्राद्ध उसी व्यक्ति को करना चाहिए, जिसकी कुंडली में पितृदोष हो। इस श्राद्ध को अविवाहित अथवा विवाहित कोई भी पुरुष कर सकता है। चूंकि हिंदू धर्म में महिलाएं पिंडदान नहीं कर सकती, ऐसे में कोई अकेली महिला त्रिपिंडी श्राद्ध की पूजा में नहीं बैठ सकती।
त्रिपिंडी श्राद्ध से जुड़े नियम –
त्रिपिंडी श्राद्ध करने से जुड़े कुछ खास नियम होते हैं, जो निम्नलिखित है –
- त्रिपिंडी श्राद्ध में शामिल होने वाले पुरुष एवं महिला का सफेद वस्त्र धारण करना अनिवार्य होता है।
- धारण किया गया वस्त्र स्वच्छ होना चाहिए।
- श्राद्ध के समय काला वस्त्र धारण करना वर्जित है।
- श्राद्ध करने वाले व्यक्ति को सात्विक भोजन करना चाहिए। भोजन में लहसुन एवं प्याज का इस्तेमाल भी वर्जित है।
- इस श्राद्ध में होने वाली पूजा का आयोजन मुख्य रूप से ताम्रपत्रधारी पंडित यानी तीर्थ पुरोहित द्वारा किया जाता है।
- श्राद्ध में अविवाहित अथवा विवाहित कोई भी पुरुष बैठ सकता है। जिस व्यक्ति की पत्नी का देहांत हो गया है,वो व्यक्ति भी इस पूजा में बैठ सकता है। परंतु इस पूजा में कोई महिला अकेले नहीं बैठ सकती।
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