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भगत सिंह की मृत्यु कब हुई ?

वीर भगत सिंह ने अंग्रेजों के हाथों मरना स्वीकार क्यों किया ? इस पोस्ट में आगे पढ़ें भगत सिंह की मृत्यु से जुड़ी सभी महत्वपूर्ण बातों को।

भारत को आज़ादी की मंजिल तक पहुंचाने वाले अमर शहीदों में एक नाम बड़ी ही वीरता के साथ लिया जाता है, वो नाम है सरदार भगत सिंह का। भगत सिंह अमर शहीदों में सबसे प्रमुख हैं। उस समय के अविभाजित भारत के लायलपुर जिले के बंगा में जन्मे इस भारत के लाल ने अंग्रेजों को दांतों तले चने चबाने पर मजबूर कर दिया था। भगत सिंह की वीरता और साहस को देखकर अंग्रेज थर- थर कांपते थे। ये एक ऐसा महान स्वतंत्रता सेनानी रहा है जिसने, पूरे देश को ये बताया है कि आखिर देश सेवा क्या होती है और देश प्रेम कहते किसे हैं?

भगत सिंग ने महज़ 23 साल की छोटी सी उम्र में ही देश के लिए जो योगदान दिया था वो वाकई में कभी भी नहीं भुलाया जा सकता है और न ही उनकी वीरता की कहानियां कभी भी फीकी पड़ सकती हैं। ये एक ऐसा वीर बालक था जिसने अपने परिवार और अपनी युवावस्था की खुशियों को छोड़कर, देश के लिए कुर्बानी देना अपना परम कर्तव्य समझा था। देश का ऐसा वीर बालक इतनी कम उम्र में ही देश को छोड़कर चला जाएगा, शायद इस बात से हर कोई वाकिफ हो गया था। क्योंकि भगत सिंह ने हमेशा अंग्रेजों के सामने सीना चौड़ा करके उनका सामना किया है। कहीं न कहीं अंग्रेजों को भगत सिंह से डर लगने लगा था। इसीलिए उन्होंने भगत सिंह को मौत के घाट उतार दिया था। लेकिन ये सब हुआ कैसे? भगत सिंह की मृत्यु हुई कैसे और कैसे इतने महान और वीर भगत सिंह ने अंग्रेजों के हाथों मरना स्वीकार किया, इस आर्टिकल में भगत सिंह की मृत्यु से जुड़ी सभी महत्वपूर्ण बातों की चर्चा की गई है।

भगत सिंह की मृत्यु : लाला लाजपत राय की मौत का बदला

भगत सिंह की मृत्यु

अंग्रेजी सरकार के सामने भगत सिंह कभी डरे ही नहीं। उनके अंग्रेज़ों के साथ कुछ ऐसे किस्से हैं जो काफी मजेदार हैं। भगत सिंह ने अंग्रेजों को परेशान करना तो बहुत पहले ही शुरू कर दिया था, लेकिन काकोरी कांड के बाद उन्हें पहली बार 1927 में अंग्रेजों के द्वारा गिरफ्तार किया गया था। इसके बाद ही भारत में साइमन कमीशन का आगमन होता है। इसका भारत में कड़ाई से विरोध किया हुआ और विरोध करने वालों में सबसे ऊपर लाला लाजपत राय का नाम था। विरोध की भीड़ में जब पुलिस को लाला लाजपत राय नज़र आए, तो पुलिस उनपे लाठियों का कहर बरपाना शुरु कर दिया। पुलिस लालाजी पर तब तक लाठीचार्ज करती रही जब तक वो लहूलुहान होकर धरती पर नहीं गिर गए। इसके बाद 17 नवंबर को, 1928 को उनका निधन हो गया। लाला लाजपत राय की मौत की ख़बर सुनकर, भगत सिंह आग बबूला हो गए और फिर वो बस अंग्रेज़ों से बदला लेने की तरकीब बनाने लगें।

लाजपत राय की मृत्यु के बाद भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, सुखदेव तथा जय गोपाल, एसपी स्कॉट को मारने की पूरी तैयारी कर ली। जय गोपाल को ये ज़िम्मेदारी थमाई गई थी कि जब भी एसपी स्कॉट थाने पहुंचेगा, वो बाकी तीनों को इस बात की जानकारी प्रदान करेंगे। लेकिन बदकिस्मती से उस दिन स्कॉट पुलिस अपनी निजी कारणों के चलते थाने आए ही नहीं। इसके साथ ही जय गोपाल को ये पता ही नहीं था स्कॉट है कौन। फिर जब थाने से असिस्टेंट एसपी जेपी सैंडर्स बाहर आए, तो जय गोपाल ने उन्हीं को ही स्कॉट समझ लिया और अपने तीनों साथियों को सूचना दे दी। फिर जय गोपाल के इशारे पर राजगुरु ने अपनी जर्मन पिस्टल से जेपी सैंडर्स को गोली मार दी। भगत सिंह ने सैंडर्स को देख लिया था और वो राजगुरु को रोक भी रहे थे, लेकिन तब तक तो बहुत देर हो चुकी थी। फिर जाते – जाते भगत सिंह ने भी उनके शरीर में कुछ गोलियां मार दीं।

भगत सिंह की मृत्यु : क्यों सुनाई गई भगत सिंह को फांसी की सजा

भगत सिंह की मृत्यु 2

सैंडर्स को मारने के बाद भगत सिंह ने अपना वेश पूरी तरह से बदल लिया था। उनके नए वेश के बारे में अंग्रेज़ी सरकार को बिल्कुल भी अंदाज़ा नहीं था। इसके बाद भगत सिंह कलकत्ता निकल गए और कलकत्ता के बाद फिर वो आगरा के लिए रवाना हुए। यहां आकर उन्होंने दो घर जो कि हींग की मंडी में थे, वहां पर किराए पर लिए। इस किराए के घर में भगत सिंह और उनके साथियों ने सैंडर्स को मारे जाने के परिणामों के बारे में चर्चा की। उन सबको लगता था कि सैंडर्ड को मारे जाने का जो असर अंग्रेज़ों पर होना चाहिए था, वो तो हुआ ही नहीं। इसीलिए उन्होंने अंग्रेज़ों को डराने के लिए दूसरी योजना बनाई।

इत्तेफ़ाक से इसी दिन दिल्ली में असेंबली में दो बिलों पर विचार किया जाने वाला था। वो 8 अप्रैल की तारीख़ थी, जब असेंबली में बिल पर फैसला आने वाला था। उसी बीच भगत सिंह और बुटकेश्वर दत्त दर्शक दीर्घा में जाकर शामिल हो गए। ये दोनों अपने हाथों में बम लेकर गए थे। असेंबली के बीच में इन दोनो ने जहां कोई मौजूद नहीं था वही पर बम छोड़ दिया। इनका मकसद बस अंग्रेज़ों को डराना था, न कि किसी को कोई क्षति पहुंचाना। बम धमाके के बाद पूरी असेंबली में अंधेरा सा छा जाता है। इसके बाद बुटकेश्वर दत्त और भगत सिंह, दोनों ने खुद को आत्म समर्पित कर दिया। दोनों में से किसी ने भी वहां से भागने की कोशिश ही नहीं की। उसी समय भगत सिंह ने अपनी पिस्टल जिससे उन्होंने सैंडर्स की हत्या की थी, वो भी पुलिस के हवाले कर दी थी। इसके बाद 7 अक्टूबर, 1930 में उन्हें बम फेंकने के मामले के लिए आजीवन कारावश की सजा सुनाई गई और वहीं सैंडर्स को मामले के कारण उन्हें फांसी की सजा सुना दी गई। भगत सिंह के साथ ही राजगुरु और सुखदेव को भी फांसी की सजा सुनाई गई और बुटकेश्वर दत्त को आजीवन कारावास दिया गया।

भगत सिंह की मृत्यु : तय तारीख़ से एक दिन पहली ही दे दी गई फांसी

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भगत सिंह के नेशनल असेंबली में बम फेंकने को लेकर फांसी की सजा सुनाई गई जिसकी तारीख़ 24 मार्च, 1931 तय की गई थी। लेकिन उस समय भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी को लेकर पूरे देश में विरोध प्रदर्शन चल रहे थे, हर तरफ नारेबाजी हो रही थी। अंग्रेज़ी सरकार को लोगों की बढ़ती हुई भीड़ देखकर डर लगने लगा था। इसीलिए उन्होंने तय तारीख़ से एक दिन पहले ही तीनों को फांसी पर लटकाना उचित समझा। भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी में कुछ ही खास लोग मौजूद थे जिसमें यूरोप के डिप्टी कमिश्नर भी शामिल थे। भगत सिंह जब जेल में थे तो उन्होंने बहुत सारी किताबें पढ़ीं थीं। वो, 23 मार्च, 1931 की शाम थी, जब उन्हें फांसी के फंदे पर लटका दिया गया था। आमतौर पर शाम को फांसी नहीं दी जाती है, लेकिन अंग्रेज़ों ने डरकर उन्हें शाम में ही फांसी देना उचित समझा। फांसी पर जाते वक्त भगत सिंग, राजगुरु और सुखदेव तीनों मस्ती में झूमते हुए, गाते जा रहे थे-

‘मेरा रंग दे बसन्ती चोला, मेरा रंग दे;
मेरा रंग दे बसन्ती चोला। माय रंग दे बसन्ती चोला।।’

फांसी देने के बाद अंग्रेज़ों को डर था कि आंदोलन भड़क सकता है, इसीलिए उन्होंने मृत शरीर के टुकड़े किए और फिर उन टुकड़ों को बोरियों में भरा और बोरियों में भरकर उन्हें फिरोजपुर के ओर ले गए। वहां ले जाकर उन टुकड़ों को अंग्रजों ने मिट्टी का तेल डालकर जलाना शुरू कर दिया। आग की लपटें जब बढ़ने लगीं, तो आसपास के लोग तुरंत भागकर आग के पास आने लगे। डरकर अंग्रेज़ों ने अधजले टुकड़ों को पास में सतलुज नदी में फेंक दिया और वहां से भाग खड़े हुए। इसके बाद लोगों ने उन तीनों के अधजले टुकड़ों को नदी से बाहर निकाला और उनका विधिवत और पूरे रीति- रिवाजों के साथ अंतिम संस्कार किया।
इसके बाद देश में आक्रोश बढ़ गया और हर तरफ अंग्रेजों के खिलाफ नारे लगाए जाने लगे, लेकिन 23 मार्च 1931 का ही वो दिन था, जिस दिन भारत ने अपने वीर सपूतों की आहुति दी थी।

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