‘संवत सोलह सौ असी, असी गंग के तीर। श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तज्यो शरीर।।’ तुलसीदास की मृत्यु से जुड़े इस दोहे में उनकी मृत्यु से जुड़ी सारी जानकारी छुपी है।
गोस्वामी तुलसीदास भारत के इतिहास के एक महान कवि थे जिन्होंने कई पुस्तकों की रचना की। गोस्वामी तुलसीदास द्वारा लिखित ‘रामचरितमानस’ महाकाव्य ने इन्हें पूरी दुनिया में ख्याति दिलाई। इनकी रचना ‘रामचरितमानस‘ के चलते इन्हे महर्षि वाल्मीकि का अवतार माना जाने लगा। तुलसीदास के जीवन और मृत्यु से जुड़ी कई कहानियां है, जो इन्हें भारत के प्रसिद्ध कवियों में सर्वोपर लेकर जाता है, और इसके साथ ही इन्हें साधारण मनुष्य से ऊपर ले जाकर एक संत और महान दार्शनिक का दर्जा दिलाता है।
इस पोस्ट में गोस्वामी तुलसीदास के जीवन से जुड़े महत्वपूर्ण पहलुओं पर चर्चा की गई है। लेकिन इससे पहले बात करते है तुलसीदास की मृत्यु के बारे में –
तुलसीदास की मृत्यु
‘संवत सोलह सौ असी, असी गंग के तीर। श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तज्यो शरीर।।‘ ये दोहा तुलसीदास की मृत्यु से जुड़ी सभी जानकारियों को अपने अंदर समेटे हुए हैं। तुलसीदास जी की मृत्यु कब हुई और कहां हुई, ये सारी जानकारी इस दोहे में छिपी हुई है। इस दोहे का अर्थ है – 1680 संवत में, श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को गंगा के अस्सी घाट पर तुलसीदास जी ने अपने शरीर का त्याग किया था।
इतिहास के मुताबिक तुलसीदास जी अपने जीवन के आखिरी दिनों में वाराणसी में गंगा नदी के प्रसिद्ध घाट ‘अस्सी घाट ‘ में रहने लगे थे। और अस्सी घाट पर ही संवत 1680 यानी सन 1623 में शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को तुलसीदास जी राम नाम का जाप करते हुए स्वर्ग को सिधार गए।
तुलसीदास की मृत्यु से जुड़ी एक कहानी भी है। कहा जाता है कि जब तुलसीदास अस्सी घाट पर रहते थे उसी समय एक रात उन्हें कुछ भय का एहसास हुआ, तब उन्होंने भगवान हनुमान का स्मरण किया। ऐसा कहा जाता है कि हनुमान जी ने स्वयं आकर तुलसीदास जी को दर्शन दिया और उनसे भगवान की प्रार्थना से जुड़े पदों की रचना करने की सलाह दी। हनुमान जी की आज्ञा से ही तुलसीदास जी ने भगवान श्री राम के चरणों में समर्पित करने हेतु अपनी ‘अंतिम कृति विनय पत्रिका’ लिखी। ऐसा कहा जाता है कि भगवान श्री राम ने स्वयं तुलसीदास जी की इस विनय पत्रिका पर हस्ताक्षर किए और उन्हें भय मुक्त किया। इसके पश्चात ही संवत 1680 में तुलसीदास की मृत्यु हुई।
तुलसीदास का जीवन परिचय
महान कवि दार्शनिक एवं संत तुलसीदास जी ने जन्म उत्तर प्रदेश के एक सर्यूपारी ब्राह्मण परिवार में 1511 ईसवी में जन्म लिया था। इनके पिता आत्मा राम शुक्ल दुबे, एवं माता हुलसी बाई थी। इनके जन्म से जुड़ी एक अनोखी कहानी है। ऐसा बताया जाता है कि सामान्य रूप से 9 माह तक मां के गर्भ में रहते हैं, लेकिन तुलसीदास जी का जन्म 12 माह में हुआ था। यही नहीं जन्म के समय यह किसी नवजात शिशु की तरह दिखाई नहीं दे रहे थे बल्कि एक हृष्ट पुष्ट बालक के रूप में थे, साथ ही इनके मुंह में दांत भी थी। जबकि किसी बच्चे के जन्म के न्यूनतम 7 माह में उसके मुख में दांत आता है। यह भी कहा जाता है कि जिस समय तुलसीदास जी का जन्म हुआ, जन्म के बाद से ही उन्होंने राम का नाम लिया था, जिसकी वजह से ही शुरुआती दौर में इनका नाम ‘रामबोला’ रख दिया गया था।
रामबोला से तुलसीदास बनना
7 वर्ष की अवस्था में तुलसीदास जी को प्रारंभिक शिक्षा दीक्षा के लिए श्री नरहर्यानंद जी के आश्रम भेजा गया। इन्हीं के आश्रम में तुलसीदास जी ने 15 साल की उम्र तक संस्कृत व्याकरण ,हिंदू साहित्य, वेदांग, ज्योतिष शास्त्र, सनातन धर्म, वेद दर्शन की शिक्षा हासिल की। श्री नरहर्यानंद जी ने ही ‘रामबोला’ को ‘तुलसीदास’ नाम दिया।
तुलसीदास का गृहस्थ आश्रम से संत बनने का सफर
गृहस्थ आश्रम का त्याग करके वैराग्य के जीवन में प्रवेश करने का तुलसीदास का सफर बहुत ही खास है। इससे जुड़ी एक कहानी बहुत प्रचलित है। संवत 1583 (1526 ईसवी) में तुलसीदास का विवाह रत्नावली (बुद्धिमती) के साथ हुआ था। तुलसीदास अपनी पत्नी से अत्यधिक प्रेम करते थे। शादी के कुछ वर्ष बाद इनके पुत्र तारक का जन्म हुआ। लेकिन कुछ ही समय बाद किसी बीमारी की वजह से इनके पुत्र का निधन हो गया। पुत्र के निधन के बाद तुलसीदास का अपनी पत्नी के प्रति लगाव और बढ़ गया। यह उस अवस्था में पहुंच गए जब उनके लिए अपनी पत्नी से कुछ समय दूर रहना भी बर्दाश्त नहीं था।
इसी बीच उनकी पत्नी रत्नावली तुलसीदास को बिना बताए अपने मायके चली गई। जैसे ही तुलसीदास को इस बात की जानकारी हुई, वो तुरंत ही अपनी पत्नी से मिलने चुपके से अपनी ससुराल पहुंच गए। तुलसीदास की पत्नी को उनका यह रवैया पसंद नहीं आया। उनकी पत्नी ने उन्हें धिक्कारते हुए कहा कि -‘मांस और हड्डियों से बने मेरे इस शरीर से आपको इतना प्रेम है, इतना ही प्रेम अगर आप भगवान राम के नाम में लगा देंगे तो आपका उद्धार हो जायेगा ‘। पत्नी की इन बातों का तुलसीदास पर गहरा असर हुआ। उन्होंने घर त्याग दिया और तपस्वी बन गए। तपस्वी के रूप में तुलसीदास ने विभिन्न तीर्थ स्थान का भ्रमण किया और राम नाम में ही अपना जीवन व्यतीत किया। कई सालों तक तपस्वी के रूप में दर-दर भटकने के बाद, अंत में तुलसीदास वाराणसी आए और गंगा नदी के अस्सी घाट पर आश्रम बनाकर रहने लगे।
वाराणसी के अस्सी घाट पर ही तुलसीदास की मृत्यु हुई।
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